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सामाजिक >> भगवान रो रहा है भगवान रो रहा हैविमल मित्र
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इस युग का सच
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
इस युग का यही सच है। ‘भगवान रो रहा है’ का सच, आज घर-घर,
लोग-बाग की जिन्दगी में उतर आया है। होश की पहली घूंट भरते हुए, मुझे भी
प्यार और ईमानदार ही जिन्दगी के सबसे बड़े सच लगे थे, लेकिन तजुर्बों ने
उससे भी बड़ा सच मेरी हथेली पर रखा-वह है रुपया ! सच ही, इंसान धन-दौलत की
हवस में, इंसानियत और नैतिकता का खून करता है; मक्कारी और देह-ईमान के
धंधे में जुटा हुआ, अपने वहशी नाखून गड़ाकर, इंसानियत को पर्त-पर्त खुरच
डालता है। दूसरों की धन-दौलत भी निहायत नामुदारी से समेटकर, अय्याशी की
अश्लील तस्वीर बने, गली-मुहल्लों के चौराहों पर टंगे रहते हैं।
इसीलिए, यह किसी उपन्यास का अनुवाद नहीं, सच की अनुकृति है। मेरा दावा है, प्रत्येक पाठक को इसमें अपने-अपने चेहरे नजर आयेंगे। कोई देवव्रत....कोई मिनती या झरना ! सच तो आखिर सौ फीसदी सच ही होता है न ?
इसीलिए, यह किसी उपन्यास का अनुवाद नहीं, सच की अनुकृति है। मेरा दावा है, प्रत्येक पाठक को इसमें अपने-अपने चेहरे नजर आयेंगे। कोई देवव्रत....कोई मिनती या झरना ! सच तो आखिर सौ फीसदी सच ही होता है न ?
सुशील गुप्ता
162/83, लेक गार्डेंस कलकत्ता- 600045
162/83, लेक गार्डेंस कलकत्ता- 600045
भगवान नामक कोई हस्ता है भी ? अगर है, तो क्या वह भगवान रोता भी है ? और
भगवान अगर सच ही रोता है, तो उसकी सिसकियां क्या इस दुनिया के इंसान सुन
पाते हैं ? इंसान अगर सुनता भी है, तो देश के बड़े-बड़े नेता क्यों नहीं
सुन पाते ? समाज-सुधारक क्यों नहीं सुन पाते ? संविधान-निर्माता क्यों
नहीं सुन पाते ? देश के नामी-गिरामी कर्ता-धर्ता क्यों नहीं सुन पाते ?
यह रुलाई एक-अकेले देवब्रत सरकार को ही क्यों सुनायी देती है ? देवब्रत सरकार की कहानी सुनते-सुनते, मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठता रहा। सच्ची तो, देवव्रत सरकार में ऐसी क्या खासियत है, जो अकेले उसी को भगवान की रुलाई सुनायी देती है ?
लेकिन हर नदी गंगा नहीं होती, हर पहाड़ हिमालय नहीं होता, हर मृग कस्तूरी-मृग नहीं होता, उसी तरह हर शख्स देवब्रत नहीं होता।
देवब्रत अगर आम इंसान होता, तो उस पर कहानी लिखना आसान होता। आम इंसानों की तरह देवब्रत के भी दो पैर, दो हाथ थे; एक अदद सिर था, नाक और माथा था। जो-जो होने से इंसान को इंसान कहा जाता है, देवब्रत सरकार में वह सारा कुछ मौजूद था।
चूंकि देवब्रत सरकार अन्यतम शख्स था, इसलिए उस पर कहानी लिखना बहुत मुश्किल काम है। उनके भंडार में जो-जो माल-मसाले थे; सारा कुछ उसने देवब्रत सरकार में भर दिया था। लेकिन चूंकि उसे गढ़ते समय भगवान अन्यमनस्क था, इसलिए देवब्रत जब इस दुनिया में आया, वह बेहद असाधारण हो उठा।
एक दिन वही देवब्रत सरकार सड़क पर पैदल-पैदल जा रहा था। उन दिनों उसकी उम्र कम थी। हां, तो रास्ते पर चलते-चलते उसने अचानक महसूस किया कि लोग उसे घूर-घूरकर देख रहे हैं।
उसे कुछ समझ नहीं आया। अच्छा, उसकी तरफ यूं घूर-घूरकर देखने को क्या है ? इस रास्ते से होकर तो वह रोज ही गुजरता है। लेकिन ऐसा चुभती निगाहों से तो उसे कोई, कभी नहीं घूरता।
उसके बदन पर वही हमेशावाली शर्ट है, वही धोती। फिर ?
‘खैर, छोड़ो ! मरने दो।’ उसने सोचा। लोग उसे घूर-घूरकर देख रहे हैं, तो उसकी बला से। उसने अगर कोई गलती की हो, तो भी कोई बात थी। लेकिन उसने तो कोई गलती नहीं की। जिन्दगी में कभी पान-बीड़ी-सिगरेट तक नहीं छुई। सिर के बालों में कभी कंघी तक नहीं फेरी। फिर किस बात का संकोच ?
लेकिन नहीं, उसे घूर-घूरकर देखने की कोई और ही वजह थी।
काफी देर बाद वह वजह भी पकड़ में आ गयी। उस वक्त वह किसी खास काम से अपने दोस्त के घर जा रहा था। उस दोस्त के पास एक किताब थी। उसने कहा था, अगर वह उसके घर आ जाये, तो वह किताब उसे पढ़ने को दे देगा। वह किताब थी- अश्विनी कुमार दत्त का ‘भक्तियोग’ !
उस जमाने में एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जाने का एकमात्र जरिया था, पैदल जाना। कोई और उपाय भी नहीं था। खैर, उपाय जानने की किसी को जरूरत भी नहीं थी। वह दोस्त उसी के स्कूल में, उसी की क्लास में पढ़ता था। बातचीत के दौरान एक दिन उसी ने बताया था, उसके बापू के पास एक किताब है- भक्तियोग।
देवब्रत ने कहा, ‘‘मुझे एक बार वह किताब उधार दे सकता है ?’’
दोस्त ने जवाब दिया, ‘‘ना, भई, मेरे बापू अपनी किताब किसी को भी घर से बाहर नहीं ले जाने देते। अगर किताब पढ़ने का इतना ही मन हो, तो मेरे घर आकर पढ़ सकता है। इसमें मेरे बापू को कोई ऐतराज नहीं।’’
देवब्रत वही किताब पढ़ने के लिए उसके घर जा रहा था। गर्मी के दिन ! चिलचिलाती धूप ! सड़कों पर आग बरस रही थी। स्कूलों में भी गर्मी की छुट्टियां हो चुकी थीं। देवब्रत जिस वक्त अपने दोस्त के यहां पहुंचा; दोपहर के दो बज रहे थे। सदर दरवाजे की कुंडी खटखटाते ही, उसके दोस्त ने ही दरवाजा खोला।
‘‘अरे, तू ? क्या बात है ?’’
‘‘हां, मैं ! तूने कहा था न, तू वह किताब मुझे पढ़ने देगा।’’
दोस्त को बात याद आ गयी। उसने उसे अन्दर आने का रास्ता दिखाते हुए कहा, ‘‘आ ! अन्दर तो आ। वह बात तो आयी-गयी हो गयी। हां, मैंने कहा तो था। तुझे अब तक याद है ? तू भी न गजब है।’’
सचमुच, देवब्रत अद्भुत लड़का था। उसके दोस्त ने अपने बापू की किताबों में से खोज-खाजकर वह किताब उसे थमा दी। देवब्रत वह किताब लेकर पास की लकड़ी की बेंच पर बैठ गया और किताब के पन्ने उलट-उलटकर फुटकर देखता रहा।
‘‘क्यों रे, दिखायी दे रहा है ?’’
देबू की तरफ से कोई जवाब नहीं आया।
दोस्त ने दुबारा पूछा, ‘‘मैं तुझसे ही पूछ रहा हूं, अंधेरे में कुछ नजर भी आ रहा है तुझे ? खिड़की खोल दूं ?’’
देबू की तरफ से फिर भी कोई जवाब नहीं आया।
दोस्त ने फिर सवाल किया, ‘‘क्या, रे, इतना क्या पढ़ रहा है ?’’ उसने देबू को टहोका मारा।
देवब्रत को मानो होश आया। उसने चौंककर कहा, ‘‘क्या तूने मुझसे कुछ कहा ?’’
‘‘तुझे इस अंधेरे में कुछ दिखायी भी दे रहा है ? अगर तू कहे तो खिड़की खोल दूं ?’’
देवब्रत ने किताब में दुबारा आँखें गड़ाते हुए कहा, ‘‘रुक जा, देखूं इस पन्ने में क्या लिखा है ?’’
अचानक उसके दोस्त ने जोर का ठहाका लगाया। हंसते-हंसते वह लोटपोट हो गया। लेकिन देवब्रत को मानो किसी बात का होश नहीं। वह उसी तरह किताब में तन्मय रहा।
‘‘अरे, यह क्या ? यह क्या कियो तूने ?’’
इतनी देर बाद मानो देबू की समाधि भंग हुई। किताब से सिर उठाकर उसने अचकचाकर पूछा, ‘‘क्यों, क्या किया मैंने ?’’
‘‘तूने यह कैसे जूते पहन रखे हैं ? यह क्या है ?’’
बंकू ने देवब्रत के पैरों की ओर इशारा किया। देवब्रत के पैरों में दो अलग-अलग डिजाइन के जूते थे।
‘‘जरा अपने जूतों पर तो नजर डाल।’’ बंकू ने कहा।
देबू ने अपने जूतों पर नजर डाली। वकाई, बायें पैर में काले रंग का जूता और दाहिने पैर में सफेद रंग का ! बंकू बेभाव हंसता रहा।
‘‘सच्ची, तेरा दिमाग बिल्कुल ही सनक गया है। तू डॉक्टर को दिखा। रास्ते पर ऐसा पागल-छागल-सा चलते-चलते किसी दिन गाड़ी के नीचे ही आ जायेगा। पांवों में अलग-अलग रंग के जूते पहनते हुए, तुझे इतना भी होश नहीं आया तू क्या पहन रहा है ?’’बंकू के लहजे में तिरस्कार-भरा विस्मय था।
‘‘असल में तेरे घर आने को मैं इतना उतावला हो उठा था कि जूतों की तरफ ध्यान नहीं दिया। खैर छोड़, क्या फर्क पड़ता है ? आदमी की परख उसके जूतों से तो नहीं होती।’’
‘‘सच्ची, तू न वज्र पागल है। तुझे तो रांची पागलखाने में भेज देना चाहिए।’’
देवब्रत उसकी बातों पर कान न देकर, पहले की तरह किताब पढ़ने में जुट गया।
न्ना ! लिखते-लिखते मैं फिर अटक गया। मुझे एक बार फिर सोचना पड़ा, कहानी अगर यहां से शुरू की तो जमेगी नहीं। देवब्रत सरकार ने किस पांव में किस रंग के जूते पहने, इसमें पाठक के नफा-नुकसान में हेर-फेर नहीं है। अच्छा, किसी और बिन्दु से कहानी की शुरूआत की जाये.........
वैसे कई चरित्र ऐसे हैं; कई घटनाएं है, जिन पर कहानी लिखी जा सकती है। देवब्रत सरकार ही क्यों.....मिनती देवी से ही कहानी शुरू की जा सकती है.......या फिर शाहबुद्दीन पर भी कहानी बुनी जा सकती है।
देवब्रत सरकार तो किसी मामूली, मध्यवित्त परिवार का मामूली नौजवान था। लेकिन, किताब पढ़ने की लत कैसे पड़ गयी, बाहरी लोगों को इसकी कोई जानकारी नहीं।
इसलिए, कहानी अगर उस शख्स से शुरू की जाये, तो उसमें किसी को दिलचस्पी नहीं होगी। फिर क्या किया जाये ? मिनती जी से कहानी शुरू करूं ? या शाहबुद्दीन से ?
सच, आजकल कहानी शुरू करना ही काफी मुश्किल काम हो गया है, क्योंकि मैं एक युग का लेखक हूं, जहां किसी पाठक को फुर्सत नहीं। वह सुबह से लेकर शाम तक काम-बेकाम व्यस्त रहते हैं। अलसुबह की एक अदद ऐसे आदमी की जरूरत होती है, जो हरिनघाटा दूध की ‘बूथ’ में लाइन दे
और आजकल ऐसा शख्स भी मिलना मुहाल है। उसके बाद रोजमर्रा के सौदा-सुलुफ की खरीदारी के लिए बाजार जाना; उस पर से सप्ताह में एक दिन चावल-दाल-तेल-चीनी की खरीदारी के लिए राशन की दुकान पर जाना, इसके अलावा घर के बाल-बच्चों को स्कूल पहुंचाने-लाने का काम। जिन लोगों के पास दौलत है, वे लोग अपने घर के बच्चों को मुहल्ले के स्कूल तक में नहीं पढ़ाना चाहते। उनके बच्चे अगर मुहल्ले के स्कूल में गये, तो लोग-बाग उन्हें गरीब कहने लगेंगे और यह कोई नहीं चाहता कि अड़ोसी-पड़ोसी की नजरें उस पर गरीबी का ठप्पा लगा दें। अस्तु, घर में रुपये हो या न हो, बाहरवालों के सामने अमीरी का ढोंग रचाना उसके लिए बेहद जरूरी है। असम में यह इज्जत का सवाल है और आजकल रुपया ही सबसे बड़ी इज्जत है।
यह रुलाई एक-अकेले देवब्रत सरकार को ही क्यों सुनायी देती है ? देवब्रत सरकार की कहानी सुनते-सुनते, मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठता रहा। सच्ची तो, देवव्रत सरकार में ऐसी क्या खासियत है, जो अकेले उसी को भगवान की रुलाई सुनायी देती है ?
लेकिन हर नदी गंगा नहीं होती, हर पहाड़ हिमालय नहीं होता, हर मृग कस्तूरी-मृग नहीं होता, उसी तरह हर शख्स देवब्रत नहीं होता।
देवब्रत अगर आम इंसान होता, तो उस पर कहानी लिखना आसान होता। आम इंसानों की तरह देवब्रत के भी दो पैर, दो हाथ थे; एक अदद सिर था, नाक और माथा था। जो-जो होने से इंसान को इंसान कहा जाता है, देवब्रत सरकार में वह सारा कुछ मौजूद था।
चूंकि देवब्रत सरकार अन्यतम शख्स था, इसलिए उस पर कहानी लिखना बहुत मुश्किल काम है। उनके भंडार में जो-जो माल-मसाले थे; सारा कुछ उसने देवब्रत सरकार में भर दिया था। लेकिन चूंकि उसे गढ़ते समय भगवान अन्यमनस्क था, इसलिए देवब्रत जब इस दुनिया में आया, वह बेहद असाधारण हो उठा।
एक दिन वही देवब्रत सरकार सड़क पर पैदल-पैदल जा रहा था। उन दिनों उसकी उम्र कम थी। हां, तो रास्ते पर चलते-चलते उसने अचानक महसूस किया कि लोग उसे घूर-घूरकर देख रहे हैं।
उसे कुछ समझ नहीं आया। अच्छा, उसकी तरफ यूं घूर-घूरकर देखने को क्या है ? इस रास्ते से होकर तो वह रोज ही गुजरता है। लेकिन ऐसा चुभती निगाहों से तो उसे कोई, कभी नहीं घूरता।
उसके बदन पर वही हमेशावाली शर्ट है, वही धोती। फिर ?
‘खैर, छोड़ो ! मरने दो।’ उसने सोचा। लोग उसे घूर-घूरकर देख रहे हैं, तो उसकी बला से। उसने अगर कोई गलती की हो, तो भी कोई बात थी। लेकिन उसने तो कोई गलती नहीं की। जिन्दगी में कभी पान-बीड़ी-सिगरेट तक नहीं छुई। सिर के बालों में कभी कंघी तक नहीं फेरी। फिर किस बात का संकोच ?
लेकिन नहीं, उसे घूर-घूरकर देखने की कोई और ही वजह थी।
काफी देर बाद वह वजह भी पकड़ में आ गयी। उस वक्त वह किसी खास काम से अपने दोस्त के घर जा रहा था। उस दोस्त के पास एक किताब थी। उसने कहा था, अगर वह उसके घर आ जाये, तो वह किताब उसे पढ़ने को दे देगा। वह किताब थी- अश्विनी कुमार दत्त का ‘भक्तियोग’ !
उस जमाने में एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में जाने का एकमात्र जरिया था, पैदल जाना। कोई और उपाय भी नहीं था। खैर, उपाय जानने की किसी को जरूरत भी नहीं थी। वह दोस्त उसी के स्कूल में, उसी की क्लास में पढ़ता था। बातचीत के दौरान एक दिन उसी ने बताया था, उसके बापू के पास एक किताब है- भक्तियोग।
देवब्रत ने कहा, ‘‘मुझे एक बार वह किताब उधार दे सकता है ?’’
दोस्त ने जवाब दिया, ‘‘ना, भई, मेरे बापू अपनी किताब किसी को भी घर से बाहर नहीं ले जाने देते। अगर किताब पढ़ने का इतना ही मन हो, तो मेरे घर आकर पढ़ सकता है। इसमें मेरे बापू को कोई ऐतराज नहीं।’’
देवब्रत वही किताब पढ़ने के लिए उसके घर जा रहा था। गर्मी के दिन ! चिलचिलाती धूप ! सड़कों पर आग बरस रही थी। स्कूलों में भी गर्मी की छुट्टियां हो चुकी थीं। देवब्रत जिस वक्त अपने दोस्त के यहां पहुंचा; दोपहर के दो बज रहे थे। सदर दरवाजे की कुंडी खटखटाते ही, उसके दोस्त ने ही दरवाजा खोला।
‘‘अरे, तू ? क्या बात है ?’’
‘‘हां, मैं ! तूने कहा था न, तू वह किताब मुझे पढ़ने देगा।’’
दोस्त को बात याद आ गयी। उसने उसे अन्दर आने का रास्ता दिखाते हुए कहा, ‘‘आ ! अन्दर तो आ। वह बात तो आयी-गयी हो गयी। हां, मैंने कहा तो था। तुझे अब तक याद है ? तू भी न गजब है।’’
सचमुच, देवब्रत अद्भुत लड़का था। उसके दोस्त ने अपने बापू की किताबों में से खोज-खाजकर वह किताब उसे थमा दी। देवब्रत वह किताब लेकर पास की लकड़ी की बेंच पर बैठ गया और किताब के पन्ने उलट-उलटकर फुटकर देखता रहा।
‘‘क्यों रे, दिखायी दे रहा है ?’’
देबू की तरफ से कोई जवाब नहीं आया।
दोस्त ने दुबारा पूछा, ‘‘मैं तुझसे ही पूछ रहा हूं, अंधेरे में कुछ नजर भी आ रहा है तुझे ? खिड़की खोल दूं ?’’
देबू की तरफ से फिर भी कोई जवाब नहीं आया।
दोस्त ने फिर सवाल किया, ‘‘क्या, रे, इतना क्या पढ़ रहा है ?’’ उसने देबू को टहोका मारा।
देवब्रत को मानो होश आया। उसने चौंककर कहा, ‘‘क्या तूने मुझसे कुछ कहा ?’’
‘‘तुझे इस अंधेरे में कुछ दिखायी भी दे रहा है ? अगर तू कहे तो खिड़की खोल दूं ?’’
देवब्रत ने किताब में दुबारा आँखें गड़ाते हुए कहा, ‘‘रुक जा, देखूं इस पन्ने में क्या लिखा है ?’’
अचानक उसके दोस्त ने जोर का ठहाका लगाया। हंसते-हंसते वह लोटपोट हो गया। लेकिन देवब्रत को मानो किसी बात का होश नहीं। वह उसी तरह किताब में तन्मय रहा।
‘‘अरे, यह क्या ? यह क्या कियो तूने ?’’
इतनी देर बाद मानो देबू की समाधि भंग हुई। किताब से सिर उठाकर उसने अचकचाकर पूछा, ‘‘क्यों, क्या किया मैंने ?’’
‘‘तूने यह कैसे जूते पहन रखे हैं ? यह क्या है ?’’
बंकू ने देवब्रत के पैरों की ओर इशारा किया। देवब्रत के पैरों में दो अलग-अलग डिजाइन के जूते थे।
‘‘जरा अपने जूतों पर तो नजर डाल।’’ बंकू ने कहा।
देबू ने अपने जूतों पर नजर डाली। वकाई, बायें पैर में काले रंग का जूता और दाहिने पैर में सफेद रंग का ! बंकू बेभाव हंसता रहा।
‘‘सच्ची, तेरा दिमाग बिल्कुल ही सनक गया है। तू डॉक्टर को दिखा। रास्ते पर ऐसा पागल-छागल-सा चलते-चलते किसी दिन गाड़ी के नीचे ही आ जायेगा। पांवों में अलग-अलग रंग के जूते पहनते हुए, तुझे इतना भी होश नहीं आया तू क्या पहन रहा है ?’’बंकू के लहजे में तिरस्कार-भरा विस्मय था।
‘‘असल में तेरे घर आने को मैं इतना उतावला हो उठा था कि जूतों की तरफ ध्यान नहीं दिया। खैर छोड़, क्या फर्क पड़ता है ? आदमी की परख उसके जूतों से तो नहीं होती।’’
‘‘सच्ची, तू न वज्र पागल है। तुझे तो रांची पागलखाने में भेज देना चाहिए।’’
देवब्रत उसकी बातों पर कान न देकर, पहले की तरह किताब पढ़ने में जुट गया।
न्ना ! लिखते-लिखते मैं फिर अटक गया। मुझे एक बार फिर सोचना पड़ा, कहानी अगर यहां से शुरू की तो जमेगी नहीं। देवब्रत सरकार ने किस पांव में किस रंग के जूते पहने, इसमें पाठक के नफा-नुकसान में हेर-फेर नहीं है। अच्छा, किसी और बिन्दु से कहानी की शुरूआत की जाये.........
वैसे कई चरित्र ऐसे हैं; कई घटनाएं है, जिन पर कहानी लिखी जा सकती है। देवब्रत सरकार ही क्यों.....मिनती देवी से ही कहानी शुरू की जा सकती है.......या फिर शाहबुद्दीन पर भी कहानी बुनी जा सकती है।
देवब्रत सरकार तो किसी मामूली, मध्यवित्त परिवार का मामूली नौजवान था। लेकिन, किताब पढ़ने की लत कैसे पड़ गयी, बाहरी लोगों को इसकी कोई जानकारी नहीं।
इसलिए, कहानी अगर उस शख्स से शुरू की जाये, तो उसमें किसी को दिलचस्पी नहीं होगी। फिर क्या किया जाये ? मिनती जी से कहानी शुरू करूं ? या शाहबुद्दीन से ?
सच, आजकल कहानी शुरू करना ही काफी मुश्किल काम हो गया है, क्योंकि मैं एक युग का लेखक हूं, जहां किसी पाठक को फुर्सत नहीं। वह सुबह से लेकर शाम तक काम-बेकाम व्यस्त रहते हैं। अलसुबह की एक अदद ऐसे आदमी की जरूरत होती है, जो हरिनघाटा दूध की ‘बूथ’ में लाइन दे
और आजकल ऐसा शख्स भी मिलना मुहाल है। उसके बाद रोजमर्रा के सौदा-सुलुफ की खरीदारी के लिए बाजार जाना; उस पर से सप्ताह में एक दिन चावल-दाल-तेल-चीनी की खरीदारी के लिए राशन की दुकान पर जाना, इसके अलावा घर के बाल-बच्चों को स्कूल पहुंचाने-लाने का काम। जिन लोगों के पास दौलत है, वे लोग अपने घर के बच्चों को मुहल्ले के स्कूल तक में नहीं पढ़ाना चाहते। उनके बच्चे अगर मुहल्ले के स्कूल में गये, तो लोग-बाग उन्हें गरीब कहने लगेंगे और यह कोई नहीं चाहता कि अड़ोसी-पड़ोसी की नजरें उस पर गरीबी का ठप्पा लगा दें। अस्तु, घर में रुपये हो या न हो, बाहरवालों के सामने अमीरी का ढोंग रचाना उसके लिए बेहद जरूरी है। असम में यह इज्जत का सवाल है और आजकल रुपया ही सबसे बड़ी इज्जत है।
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